इंटरनेट के जन्म से आज तक, इसके स्वरूप में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ चुका है. गोपनीय सरकारी दस्तावेज़ों से लेकर आम लोगों के चैट रिकॉर्ड और ईमेल, सभी कुछ इंटरनेट की वर्चुअल ताकों पर रखा हुआ है.
सोचिए इसका मालिकाना हक अगर किसी व्यक्ति या देश के पास होता तो वह देश कितना माला-माल हो जाता. लेकिन सच यह है कि इंटरनेट का कोई एक मालिक नहीं है.
इंटरनेट की उत्पत्ति और उसमें रोज़ाना होने वाले इनोवेशनों के लिए सरकारों से लेकर निजी क्षेत्र, इंजीनियर्स, सिविल सोसाइटी के लोगों के अलावा और भी कई क्षेत्रों का सहयोग है.
पर स्थिति तब चिंताजनक हो जाती है जब इंटरनेट पर प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण रखने की बात की जाए.
इंटरनेट गवर्नेंस पर पिछले दो दशकों से बहस हो रही है और इसे नियंत्रित किए जाने और ना किए जाने के पक्षों में लगातार चर्चाएं हो रहीं हैं.
इंटरनेट डोमेन यानी वेबसाइट पता जारी करने वाली संस्था, आईकैन (इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइंड नेम्स एंड नंबर्स) जैसी इंटरनेट की मूलभूत कंपनियां अमरीका में स्थित हैं, जिस वजह से ये माना जाता है कि इंटरनेट पर अमरीका का दबदबा है.
लेकिन इंटरनेट पर एकाधिकार की स्थिति से बचने के लिए इसे संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लाए जाने की कोशिश की जा रही है.
कुछ देश चाहते हैं कि इंटरनेट गवर्नेंस की ऐसी व्यवस्था बने जिसमें इंटरनेट सरकारों के नियंत्रण में रहे.
ऐसी मांग के पीछे एक अहम कारण ये भी है कि देशों को साइबर सुरक्षा की चिंता भी है और सुरक्षा के क्षेत्र में इसके दुरुपयोग का डर भी. यही कारण है कि कई देश मन ही मन इसके नियंत्रण का हक पाना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य एक ऐसी बहुपक्षीय व्यवस्था चाहते हैं बने जिसमें इंटरनेट से जुड़े सभी पक्षों का हित संरक्षित हो.
भारत में भी इस बारे में व्यापक तौर पर चर्चा की जा रही है. बीते बुधवार दिल्ली में इंटरनेट और टेलिकॉम से जुड़ी संस्थाओं ने मिलकर एक गोलमेज़ बैठक का आयोजन किया जिसमें सरकारी, गैर-सरकारी वर्ग और सिविल सोसाइटी के लोगों ने हिस्सा लिया. इनमें अध्ययन, व्यापार, वकालत, तकनीक और सामाजिक कार्य से जुड़े लोग शामिल हुए.
इंटरनेट गवर्नेंस से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के विशेष समूह मैग (मल्टी-स्टेकहोल्डर एडवायज़री ग्रुप) की सदस्या शुबि चतुर्वेदी कहती हैं, “इंटरनेट सरकार के प्रारूप से बाहर की उपलब्धि है. अभिव्यक्ति की आज़ादी, सार्वलौकिकता, इनोवेशन ये सभी इसके मूल सिद्धांत हैं. ऐसे में विचार इस बात पर करना है कि क्या यूएन के तहत ऐसा कोई मॉडल बन सकता है जिसमें समाज, सरकार और निजी क्षेत्र समेत सभी को बराबर का अधिकार मिले.”
उन्होंने कहा, “ट्यूनिस एजेंडा एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसमें मल्टीस्टेकहोल्डर्स के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी लेकिन इसे लिखे गए नौ साल हो गए हैं और साल 2015 में इसे अपडेट किया जाना है.”
बीते साल जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की कमीशन ऑन साइंस एंड टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट की बैठक में भारत ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि इंटरनेट का अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन बहुपक्षीय, पारदर्शी और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए, जिसमें सरकार और दूसरे सहयोगियों की पूरी भागीदारी हो.
हालांकि भारत ने इस बारे में अपने विचार दमदार तरीके से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे नहीं रखे. कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ने जानबूझकर इस बारे में मज़बूती से कदम नहीं उठाए और इस मामले पर विकासशील देशों के समूह का नेतृत्व ब्राज़ील को करने दिया.
शुबि चतुर्वेदी कहतीं हैं, “दूसरे विकासशील देशों के मुकाबले भारत की नुमाइंदगी काफ़ी कम है और मुझे लगता है इसके पीछे वजह आम जनमानस में इस मुद्दे पर जानकारी का अभाव है. इसीलिए सरकारें ऐसे मुद्दे प्रभावशाली तरीके से नहीं उठातीं.”
आने वाले समय में इंटरनेट की अगली एक अरब आबादी भारत, चीन और दक्षिण एशिया के देशों से ही आनी है. ऐसे में इस महत्वपूर्ण विषय पर भारत की भूमिका काफ़ी अहम हो जाती है.
फ़रवरी में यूएन-सीएसटीडी की बैठक में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश इंटरनेट गवर्नेंस और बहुपक्षीयता पर अपनी राय रखेंगे. ऐसे में ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत और अन्य विकासशील देश इस मुद्दे पर अपनी क्या राय रखते हैं
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