साध्वी प्रज्ञा भोपाल से लोकसभा सांसद हैं। साध्वी प्रज्ञा पर ‘भगवा आतंक’ की लॉबी ने आतंकी गतिविधियों में शामिल रहने के आरोप भी लगाए हैं, और इस संदर्भ में कोर्ट में मामले चल रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा भगवा रंग का परिधान पहनती है, जो कई लोगों की आँखों में खटकता है। जबकि दूसरे मजहबी चिह्नों के साथ संसद में पहुँचने वालों को उसी आँख का तारा माना जाता है क्योंकि देश में सेकुलर बयार बह रही है।
कल लोकसभा में महात्मा गाँधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को कथित तौर पर साध्वी प्रज्ञा ने देशभक्त कहा, इस पर खूब बवाल हुआ। साध्वी ने बताया कि वो बलिदानी उधम सिंह का समर्थन कर रही थीं, न कि गोडसे का। हालाँकि, इससे पहले भी गोडसे को साध्वी प्रज्ञा द्वारा देशभक्त कहा जा चुका है। उस समय लोकसभा चुनावों की कैम्पेनिंग के दौरान उन्होंने कहा था कि गोडसे देशभक्त थे, हैं, और रहेंगे। तब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि साध्वी प्रज्ञा ने उनसे माफी तो माँगी है लेकिन वो मन से माफ नहीं कर पाएँगे।
संसद में कल जो हुआ, और उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं, उस पर बातचीत और चर्चा आवश्यक है। इसी संसद में वो लोग भी आते रहे हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा फाँसी की सजा पाने वाले आतंकियों के समर्थन में बातें कही हैं। उन पार्टियों के नेता यहाँ आते हैं जिनके लिए कश्मीरी आतंकी ‘माटी के सपूत’ हैं। इसी संसद में संविधान फाड़ने वाले लोग आए हैं। इसी संसद में याकूब और अफजल गुरु को शहीद बताने वाले सांसद भी रहे हैं। और इसी संसद में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसी बातों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘विरोध का स्वर’ कह कर, इस पर सवाल पूछने वालों को ही मूर्ख बता दिया गया।
लेकिन इससे साध्वी प्रज्ञा के गोडसे को ले कर कही गई बातों को सही या गलत नहीं माना जा सकता। साध्वी ने कुछ बोला, किसी संदर्भ में बोला, और ये सुनने वालों के हाथ में है कि उसे वो किस संदर्भ में देखते हैं, और अपनी विचारधारा या आस्था के आधार पर गोडसे को क्या मानते हैं। फिर भी, अगर यह संसद याकूब, अफजल, बुरहान जैसे आतंकियों के हिमायतियों को बर्दाश्त करता रहा है तो उसे कोई हक नहीं है कि साध्वी प्रज्ञा पर बवाल करे। ये पूरा तंत्र इन्हीं पार्टियों ने बनाया है जहाँ ‘संसद की गरिमा’ कूड़ेदान में फेंकी जाती रही है क्योंकि आतंकी, जो कि लगभग हर वक्त ही मजहब विशेष से है और उसके समर्थन में बोलने वाला सांसद भी उसी मजहब विशेष से, तब वो किसी तरह का बवाल नहीं करते। तब चुप रहे, तो अब भी चुप रहो, सहना सीखो क्योंकि इस खेल के नियम तुम्हीं ने बनाए हैं।
नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या की, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं कि पिस्तौल से गोलियाँ चलाने से पहले तक गोडसे भी इस राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार थे। आखिर कोई क्रातंकारी, अपने ही देश की आजादी के लिए काम करने वाले दूसरे सेनानी की हत्या क्यों कर देता है? आखिर गाँधी ने, जिनकी गोडसे बहुत इज्जत करते थे, ऐसा क्या किया था उस काल और परिस्थिति में कि गोडसे ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी?
अब बात यह है कि इन बातों पर कभी कोई चर्चा हुई ही नहीं क्योंकि गाँधी को महात्मा बनाने के चक्कर में इस देश की सत्ताओं ने उनके दूसरे पहलुओं को राष्ट्रीय चर्चा से दूर रखा। कोई अगर इस पर बात करने की कोशिश भी करता है तो उसे ऐसे देखा जाता है जैसे वो देशद्रोह कर रहा हो। महात्मा होने का मतलब यह नहीं है कि आपकी हर नीति सही ही थी, और आपसे होने वाले नुकसान या खतरे पर कोई चर्चा ही न की जाए।
गाँधी की तुष्टिकरण की नीतियों की इंतिहा यह थी कि मंदिर में वो कुरान बाँचते पाए जाते थे, और स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल को माफ करने की बातें करते थे कि वो भाई है, उसे माफ कर दो। ये सब गाँधी इसलिए करते रहे क्योंकि वो सामाजिक सद्भाव बढ़ाना चाहते थे। हर झटका बहुसंख्यक हिन्दू ही सहे, और उसके मंदिरों में इस्लाम के प्रवचन चलें, लेकिन गाँधी की यह हिम्मत कभी नहीं हुई कि वो इसी सद्भाव के नाम पर किसी मस्जिद के अहाते में रामकथा पर चर्चा करते। गाँधी के इन विचित्र तरीकों पर बहुत हिन्दू नाराज थे।
गाँधी की इन नीतियों पर जी डी खोसला की किताबों से पता चलता है, जो कि गाँधी की हत्या के मुकदमे पर फैसला सुनाने वाले जजों में से एक थे। उनकी पुस्तक से पता चलता है कि गोडसे की समस्या सिर्फ और सिर्फ गाँधी से ही थी, किसी और से नहीं। गोडसे कहीं से आए नहीं थे, बल्कि इसी देश में, उसी समय मौजूद थे जहाँ भंगी कॉलोनी के हिन्दू मंदिर में कुरान की आयतें पढ़ीं जा रही थी और हत्यारे अब्दुल को भाई बताया जा रहा था। गोडसे ने लाखों हिन्दुओं की हत्याओं को देखा था, उस रक्तपात को देखा था जिसमें हिन्दुओं के कटे अंग सड़कों और रेल की पटरियों पर बिखरे पड़े थे। गोडसे उस समय जिंदा थे जब लाखों हिन्दुओं को अपना घर त्यागना पड़ा था। और हाँ, गोडसे को लगा कि इसके जिम्मेदार महात्मा गाँधी थे, जिनकी हत्या उसने पूरे होशो-हवास में की और कहा कि उसे इसका कोई मलाल नहीं।
गोडसे एक जगह कहते हैं कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो, शासन करो’ की नीति को गाँधी जी ने सफल बनाया क्योंकि लगातार हिन्दुओं की सहिष्णुता का मजाक बनाते हुए गाँधी जी ने एक पूरे समुदाय को दूसरे से अलग-थलग कर दिया था।
गाँधी को अम्बेडकर ने राष्ट्र के लिए एक ‘पॉजिटिव डेंजर’ बताया था। लक्ष्मी कबीर (जो बाद में उनकी पत्नी बनीं) को गाँधी के बारे में लिखते हुए, अम्बेडकर ने कहा था, “मेरा मानना है कि महान लोग राष्ट्र के लिए एक धरोहर की तरह होते हैं, लेकिन कई बार वो देश के विकास की राह में अवरोध की तरह भी होते हैं। गाँधी आज के दौर में एक सकारात्मक खतरा बन गए हैं। उन्होंने हर तरह के विचारों पर शिंकजा कस रखा है। गाँधी ने उस कॉन्ग्रेस पर अपनी पकड़ बना रखी है जिसमें हर तरह के, बेकार और स्वार्थी लोगों का जमावड़ा है जो किसी भी नैतिक या सामाजिक आदर्शों को मान कर जीने वाले न हो कर, बस गाँधी की जय-जयकार और चाटुकारिता में लगे रहते हैं।”
अम्बेडकर आगे लिखते हैं, “ऐसी संस्था किसी भी राष्ट्र को चलाने के लिए सही नहीं है। जैसा कि बाइबिल में लिखा है कि कभी-कभी किसी बुराई से भी अच्छाई निकल आती है, वैसे ही मुझे लगता है कि गाँधी की मृत्यु से भी कुछ सकारात्मक घटित होगा। हो सकता है लोग एक सुपरमैन, या महात्मा, की अवधारणा के शिकंजों से आजाद होंगे और वो अपने लिए सोचने के साथ-साथ, अपने विश्वास को लेकर आगे बढ़ना सीखेंगे।”
अब सवाल यह है कि क्या गाँधी पर पिस्तौल तानने वाले गोडसे को राष्ट्रभक्त कहा जा सकता है? इसके जवाब में सवाल यह है कि किसी के द्वारा किसी अपराध में लिप्त होने पर उसकी देशभक्ति क्या उससे छीनी जा सकती है? आप गोडसे को देशद्रोही कहें या राष्ट्रभक्त मानें, यह आपकी वर्तमान विचारधारा पर निर्भर करता है, लेकिन इस पूरे प्रकरण को चर्चा से बाहर रखना बताता है कि इसके पीछे के उद्देश्य राजनैतिक थे, सामाजिक या राष्ट्रीय नहीं।
इसलिए, गोली मार कर किसी की हत्या करना एक अपराध अवश्य है, लेकिन उस अपराध के आधार पर किसी की राष्ट्रभक्ति पर ही सवाल खड़े कर देना भी गलत ही कहा जाएगा। ‘देशभक्त था इसलिए गोली चलाई’, इससे गोडसे अपराधमुक्त नहीं होते, उसी तरह ‘गोली चलाई, जान ले ली, तो देशभक्त कैसा’ कहना भी अनुचित ही है।
अब बात आती है कि ये लोग जो टची-फीली महसूस करने लगते हैं इन बातों और बयानों पर, वो क्या वाकई गाँधी के मूल्यों और आदर्शों की चिंता करते हैं? बिलकुल नहीं। गाँधी महामानव थे, तो उनमें खामियाँ भी थीं जो कि उनके समकालीन लोगों ने बताई हैं, उस पर लिखा है। गाँधी का चेहरा नोट पर रख देने से वो आलोचना से परे नहीं हो जाते, वस्तुतः कोई भी व्यक्ति आलोचना से परे नहीं हो सकता। राजनैतिक लाभ के लिए इस देश में राम के अस्तित्व पर भी सवाल उठे हैं, और आस्था को कल्पना तक कह दिया गया।
सीता के साथ राम ने एक राजा के तौर पर जो व्यवहार किया, लेकिन पति के तौर पर वो मन ही मन घुटते रहे, उसका प्रतिफल राम को, विष्णु के अवतार को, मर्यादा पुरुषोत्तम को, अपनी आँखों के सामने माता सीता को धरती की गोद में समाते देख कर सहना पड़ा था। गाँधी राम से बड़े नहीं, और मर्यादा पुरुषोत्तम के ‘म’ भी नहीं हैं। गाँधी की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता को भुनाने के लिए कॉन्ग्रेस ने उनके आइकोनिफिकेशन, यानी अवतारपुरुष बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी।
इस प्रक्रिया में महान गाँधी को महानतम बनाने के लिए कितने ही महापुरुषों की बलि दी गई जब उनके चरित्र को, उनके योगदान को भारतीय इतिहास में कुछ अनुच्छेदों में समेट दिया गया। सुभाष चंद्र बोस से ले कर भगत सिंह, आजाद, सरदार पटेल जैसी विभूतियों की कहानियों को पाठ्यक्रम में न सिर्फ हाशिए पर ढकेला गया बल्कि हर किताब के आवरण के भीतरी पन्नों पर गाँधी की गाथाएँ छापी गईं। गाँधी के नाम पर सड़कें, स्टेडियम, भवन, कार्यालय, संस्थाएँ… हर संभव जगह पर गाँधी का ब्रांड स्थापित किया गया।
इससे समस्या नहीं है, क्योंकि गाँधी इसके लिए अयोग्य नहीं हैं, लेकिन अयोग्य तो बाकी भी नहीं थे। लेकिन एक व्यक्ति को अपना बनाने के लिए कॉन्ग्रेस ने अंबेडकर से ले कर तमाम महात्माओं को नकारा, और व्यवस्थित तरीके से उन्हें इस तरह से आम लोगों तक पहुँचाया कि ‘हाँ भैया, ये भी थे उस समय, लेकिन गाँधी में जो बात थी, वो नहीं थी इनमें!’
इसलिए, कॉन्ग्रेस आज भी बिदक जाती है गाँधी के नाम को ले कर। लेकिन इससे वो भावनात्मक तौर पर दुख महसूस नहीं करती, जैसा कि नेहरू की नाकामियों और नीतिगत असफलताओं की चर्चा होने पर उन्हें महसूस होता है। गाँधी पर उँगली उठाने वालों से कॉन्ग्रेस को अलग तरह का दुख होता है, वो दुख है कि गाँधी ब्रांड पर तो बस इन्हीं का अकेला हक था, और वो ही उनके आधिकारिक उत्तराधिकारी हैं।
गोडसे को नकारने, या उसकी देशभक्ति पर सवाल उठाने के पीछे के कारण गोडसे नामक व्यक्ति को ले कर नहीं हैं, बल्कि उसी से किसी न किसी तरह से जुड़ी संस्था आज सत्ता में है, इसलिए इन नामों पर चिल्लाने से कॉन्ग्रेस को थोड़ा माइलेज मिल जाता है। जिस राजवंश का राजकुमार संसद में दो सवाल नहीं पूछ पाता क्योंकि वो तैयारी कर के नहीं आया था, और दो लाइन में यह बोल कर निकल जाता है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई है, अब सवाल पूछने का क्या फायदा, उस राजवंश के चाटुकार गोडसे के नाम पर तो हल्ला करेंगे ही।
राहुल गाँधी ने गोडसे का आतंकवादी कहा है। राहुल गाँधी ने भारत के प्रधानमंत्री, अपने पिता और अपने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजीव गाँधी के हत्यारों को भी माफी दे दी थी। आतंकी तो वो भी हैं, उन्होंने तो देश के प्रधानमंत्री की ही हत्या नहीं की थी, तुम्हारे पिता की भी हत्या की थी, लेकिन गोडसे पर बिलबिला क्यों जाते हो? कहाँ गई तुम्हारी करूणा?
बात यह है कि राहुल गाँधी की डोरियाँ जो भी खींच रहा है उसे यह बखूबी पता है कि घोटालेबाज़ राजीव गाँधी के नाम पर, उसके हत्यारों को माफ करने से तमिल वोट ही मिलेगा, लेकिन मोहनदास करमचंद गाँधी जो है, वो बड़ी चीज है, और उस पर तो पार्टी का कॉपीराइट टाइप का मामला है, तो उस पर चिहुँकना दूसरे तरह के राजनैतिक फायदे पहुँचा सकता है।
यहाँ अपने पिता को ही राजनीति के कारण जिस आदमी ने हाशिए पर डाल दिया हो, वो गाँधी के नाम पर क्यों खेल रहा है? माफ कर दो न गोडसे को, महात्मा गाँधी ने ही कहा था कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। तो माफ कर दो गोडसे को, बात खत्म। सबको समझ में आ जाएगा कि तमिल आतंकियों को तुमने सच में माफ किया है, न कि तमिलनाडु में पार्टी की जरूरत के हिसाब से पिता के हत्यारों को भुला दिया। फर्जी के जीसस क्राइस्ट मत बनो राहुल गाँधी, तुम्हारा सच हर दूसरे दिन सामने आता रहता है।
इसलिए, गाँधी को उसी रोशनी में देखा जाए जिसमें हमने बाकी लोगों को देखा है। गाँधी की महानता बनी रहे, उनका ब्रांड चमकता रहे, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम आँख मूँद कर उनके समकालीन लोगों द्वारा रखी गई बातों की उपेक्षा कर दें। आखिर इस विषय को ऐसे क्यों देखा जाता है जैसे कोई अपराध हो गया हो? क्या इसी देश में वामपंथी और लिबरल गिरोह गाँधी को जातिवादी नहीं कहा गया है? लेकिन वामपंथियों का क्या कहना क्योंकि वो आज कल न तो सत्ता में हैं, न ही उनकी बातों पर कोई ज्यादा ध्यान दे रहा है।
गाँधी की पुण्यतिथि मनाई जाए, सड़कें बनती रहें, रुपयों पर उनका चेहरा रंग बदल कर छपता रहे, कोई आपत्ति नहीं। वो राष्ट्रपिता हैं, महात्मा हैं, लेकिन एक वयस्क होते लोकतंत्र में हर दृष्टिकोण को चर्चा में आने का पूरा हक है। यहाँ जब विश्वविद्यालयों में आतंकवादियों की बरसी मनाई जाती है, तो फिर वहीं महात्मा गाँधी को ले कर बाकी चर्चाएँ भी आयोजित होनी चाहिए। लोकतंत्र में तो सबका पक्ष सुना जाता है, फिर गोडसे ने गाँधी की हत्या क्यों की, यह पक्ष भी जानने की आवश्यकता है।
अगर इस पर चर्चा नहीं हुई तो हम आँख मूँद कर उसी दिशा में बढ़ते रहेंगे जिस पर भीम राव अम्बेडकर जैसे महापुरुषों ने कहा था कि गाँधी के दौर में बस गाँधी की चाटुकारिता ही हो रही थी, बाकी हर तरह की आवाज और हर तरह के विचारों को दबा दिया गया था जैसे कि अलग विचार रखना कोई अपराध हो। किसी को महामानव बना देने से समाज के लोगों की वैयक्तिक सोच दब जाती है, खास कर तब जब आप उस महामानव के विचारों या कृत्यों की आलोचना करने लगते हैं।
गाँधी की हत्या के बाद अम्बेडकर जिस तरह की वैचारिक स्वतंत्रता की उम्मीद लगाए बैठे थे, उसे कॉन्ग्रेस के चाटुकारों ने पूरी तरह से कुचल दिया। उन्होंने दूसरी तरह की विचारधारा को पूरी तरह से खारिज कर दिया और लम्बे समय तक सत्ता में रहने का परिणाम यह हुआ कि दो पीढ़ी बीतने के बाद नोट पर गाँधी का मुस्कुराता चेहरा देखते हुए, कोई भी गाँधी की नीतियों की समालोचना तो छोड़िए, उनके चश्मे, लाठी और ‘रघुपति राघव राजा राम’ एवं ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ से बाहर ही नहीं आ पाया है।
इसलिए, अगर वो लोग जो गोडसे को आतंकी मानते हैं, लेकिन अब्दुल, अफजल और याकूब पर चुप हो जाते हैं, उन्हें अब बर्दाश्त करना सीखना चाहिए। भाजपा ने भले ही साध्वी प्रज्ञा पर त्वरित कार्रवाई की हो, लेकिन बदले हुए युद्धक्षेत्र में दुश्मन के नियमों से खेलने की बजाय, भाजपा को अपने नियम तय करने चाहिए और आतंकियों के हिमायतियों को आँख में आँख डाल कर बताना चाहिए कि ‘हाँ, हम ऐसे ही हैं, क्या उखाड़ लोगे’।
लेकिन, देश के राइट विंग की यही समस्या है कि उसे दीर्घकालिक युद्ध भी लड़ना है, लेफ्ट विंग की स्वीकार्यता भी चाहिए और अपनी नैतिकता भी बचानी है। जबकि, समय बदल गया है और सामने वाले कोर्ट के ऊपर जनेऊ पहन कर हिन्दू बने घूम रहे हैं, और दूसरे ही पल हिन्दुओं को नीचा दिखाने में कसर नहीं छोड़ रहे, और तुम्हें नैतिकता और आदर्शों की पड़ी है कि तुमने न तो संदर्भ देखा, न सुनवाई की, बस विरोधियों के जाल में उलझ कर तुमने साध्वी प्रज्ञा को संसदीय समिति की बैठकों से भी बाहर कर दिया, डिफेंस वाली कमिटी से बाहर कर दिया और तुम्हारे सारे नेता माफी माँगते दिख रहे हैं। यही सब करना था तो उसे चुनाव क्यों लड़वाया?
वैचारिक युद्ध के दौर में, जब नैरेटिव को अपने नियंत्रण में लेना है तो इन छोटी, अनावश्यक बातों पर जवाबी कार्रवाई तो छोड़िए, आधे सेकेंड की प्रतिक्रिया भी देना बेकार में समय खराब करना है। नैरेटिव में तुम्हें हमेशा नकारा गया है, तुम्हारी पूरी विचारधारा को बिना सुने-जाने खारिज किया गया है, और दुर्भाग्य यह है कि तुम्हें उन्हीं लोगों से ‘सर हमने ठीक बोला ना?’ पूछ कर शाबाशी लेनी है।
ये विजेताओं का एटीट्यूड नहीं है, ये हारे हुए लोगों का पतनोन्मुखी एटीट्यूड है जिससे तुम्हारे पीछे खड़ी सेना को प्रेरणा नहीं मिलेगी। तुम उनसे लड़ रहे हो जो हर मूल्य से समझौता कर लेते हैं, शिव सेना के साथ सरकार बना लेते हैं ताकि तुम्हारे ही वोटबैंक को लगे कि ये पार्टी तो हिन्दू-विरोधी नहीं है। और तुम, साध्वी प्रज्ञा के बयान पर बिना संदर्भ जाने, बस फाँसी की सजा नहीं सुना पाते, बाकी हर गलत चाल चल देते हो ताकि तुम्हारे ही समर्थकों में यह संदेश जाए कि उसे संसद में पहुँचाना एक भूल थी।
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